Father's Day के उपलक्ष में आलोक श्रीवास्तव की बाबूजी
घर की बुनियादें, दीवारें, बामो-दर थे
बाबूजी
सबको बांधे रखने वाला ख़ास हुनर थे
बाबूजी
तीन मुहल्लों में उन जैसी क़द-काठी का
कोई न था
अच्छे-ख़ासे, ऊँचे-पूरे
क़द्दावर थे बाबूजी
अब तो उस सूने माथे पर कोरेपन की चादर
है
अम्माजी की सारी सज-धज, सब ज़ेवर थे
बाबूजी
भीतर से ख़ालिस जज्बाती और ऊपर से
ठेठ-पिता
अलग, अनूठा, अनबूझा-सा इक
तेवर थे बाबूजी
कभी बड़ा सा हाथ ख़र्च थे, कभी हथेली की
सूजन
मेरे मन का आधा साहस, आधा डर थे बाबूजी
No comments:
Post a Comment