Thursday, 2 June 2016

कविता नंबर #1



हमने खयालो मे बना लिए उँचे महल,
साफ पानी के दरिये,
हंसती बिल्लियाँ और ज़िंदा पक्षी..
क्यूँकि हमें आज़ादी ना थी,
जूते पहन सोने की,
और ना ही पाला बदल,
चलने की दाईं तरफ..
पर हम रुके नहीं,
कम से कम खयालों में तो नहीं..
हमने भर दिए शहर के शहर,
गाँव के गाँव फिल्मी पोस्टरो,
और गानो की रील से,
बिना पूछे किसी से ये,
के क्या सही और क्या गलत..
सड़कों पर बिछा टेल्कम पाउडर,
गाड़ियाँ शमशानों में जमा कर,
रख दी गयीं एक के उपर एक,
क्यूँकि मरने पर मनाही थी,
जबकि फिसलना अनिवार्य..
स्कूल हालाँकि बचा लिए गये,
बंद किए जाने से,
लेकिन विषय सभी बदल दिए गये,
काग़ज़ रंगने के विषय को छोड़कर..
क्यूँकि सभी रंगोँ में,
कहानियाँ तो हज़ारों थी,
पर कोई प्रश्न यूँ ना था,
के इस रंग का व्यास क्या होगा,
और ना ही ऐसा कुछ,
के उस रंग के बाप का बाप कौन था..
पर उन्होने भांप लिया,
हमारे अंगूठे के निशान,
और स्याह पड़े हाथो पर,
बनने लगी लकीरो को..
जो दिखाई देती थी उस सड़क की तरह,
जिसपर दाईं तरफ दौड़ते लोग,
बादलो से पानी पीते थे..
फिर अंततः हमें भी ,
नींद की दवा में ज़हर घोल,
सुलाया जाने लगा,
ज़हर जिसमें ना नींद आती,
ना ही सपने.
--Pravesh 


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