Friday, 24 June 2016

जिन्दगी किश्तों में #2

तुम्हें उसका चेहरा कभी याद नही आया। एक शाम वो बहुत देर तक किसी बात पर हँसती रही थी। कई दफे तुमने वो बात याद करने की कोशिश की। पर वक्त ने सब धुंधला कर दिया।
इश्क़ ने तुम्हें निकम्मा कर दिया और 65% की डिग्री ने नाकारा।
तुम्हें ना इश्क़ में नाकामी ने हराया, ना किसी जानलेवा बीमारी ने और ना ही बेरोजगारी ने। एक रोज तुम बस खुद से ही हार गए। उस दोस्त ने तुम्हारा साथ दिया। वो दोस्त शराबी था और तुम ना-उम्मीद।
जारी..

[जिन्दगी किश्तों मे]
 चिराग़ शर्मा

गैरज़रूरी सूचना-- ये "ज़िन्दगी किश्तों में" की दूसरी किश्त है  , पहली किश्त आप को इसी ब्लॉग पर मिल जाएगी नीचे छपी लिंक पर ,आगे की किश्तें भी जल्दी ही भर दी जायेंगी | 

पहली किश्त पढने के लिए यहाँ क्लिक करें http://zeerokattas.blogspot.in/2016/06/blog-post_15.html


Sunday, 19 June 2016

Happy Father's Day



Father's Day के उपलक्ष में आलोक श्रीवास्तव की बाबूजी 


घर की बुनियादें, दीवारें, बामो-दर थे बाबूजी
सबको बांधे रखने वाला ख़ास हुनर थे बाबूजी

तीन मुहल्लों में उन जैसी क़द-काठी का कोई न था
अच्छे-ख़ासे, ऊँचे-पूरे क़द्दावर थे बाबूजी

अब तो उस सूने माथे पर कोरेपन की चादर है
अम्माजी की सारी सज-धज, सब ज़ेवर थे बाबूजी

भीतर से ख़ालिस जज्बाती और ऊपर से ठेठ-पिता
अलग, अनूठा, अनबूझा-सा इक तेवर थे बाबूजी

कभी बड़ा सा हाथ ख़र्च थे, कभी हथेली की सूजन
मेरे मन का आधा साहस, आधा डर थे बाबूजी

उड़ता पंजाब


पचास रुपए का चांद

लेखक - गौरव सोलंकी 

18 जून 2016
एक खंडहर है 'उड़ता पंजाब' में. जहां सरताज का भाई इंजेक्शन लगाता है ख़ुद को ड्रग्स के. जहां टॉमी को मिलते हैं उसके साथी वे दो लड़के - गुरू गोविंद सिंह के बच्चे - जो दीवार पर हाथ टेककर उठ भर पाते वहां से तो कोई गाना गा सकते थे सरसों के उन खेतों में, जहाँ ग्रीन रिवॉल्यूशन आया था कभी. पर वह नहीं है कहीं.
पचास रुपए में चाँद ख़रीदा है उन्होंने और किसी ने मन भर मिट्टी डाल दी है उन पाँचों नदियों में, जिनका नाम सुनकर नसें काँप सी जाती हैं. कि जैसे कोई महबूबा हो पुरानी ये पंजाब, जिसे बदनाम होने से बचाना चाहते हैं इतने सारे लोग.

हम डरे हुए लोग हैं. हमारे धर्म मांस के टुकड़ों से थरथरा जाया करते हैं. हम लड़कियों की उनके बलात्कारियों से शादी करवाकर सुरक्षित महसूस करते हैं.
हम कवर खरीदते रहते हैं हर चीज़ का, सामान चेन से बाँधते रहते हैं. हम छिपा देते हैं अपने घर के बीमारों को पिछले कमरे में. हम वॉल्यूम बढ़ा देते हैं टीवी का, जब कोई चिल्लाता है. हम खुले में चूम नहीं सकते, न रो सकते हैं.
इसीलिए हम अपने भीतर इतना चूम और रो रहे होते हैं. इसीलिए हमें बार-बार तसल्ली चाहिए कि सब ठीक है. दिन में तीन बार, दवाई की तरह. और जब शाहरूख बाहें फैलाता है या वरुण धवन नाचता है चिट्टी कलाइयों वाली जैकलीन के साथ, तो सांस में सांस आती है हमारी.

और फिर अक्सर कोई कलाकार आता है - कोई लेखक या फ़िल्ममेकर या घड़ीसाज़ - जो कहता है कि कुछ गड़बड़ है कहीं, कि या तो हम बीमार हैं या करप्ट हैं. और तब इकट्ठे हो जाते हैं सब - इसके सैल बदल दो, ये पागल हो गया है.
और फिर ऐसे नेता चुनते हैं वे, जो पुचकारते हैं उन्हें और सैल बदलते हैं उन सब पागलों के. कुछ को फ़ॉर्मेट करना पड़ता है. एक टेप ऑन कर दिया जाता है हर घर में जो याद दिलाता रहता है कि सब कुछ अच्छा है और, और अच्छा हो रहा है.

इस बीच वे किसी लेखक को घड़ीसाज़ कहने लगते हैं और घड़ीसाज़ को लेखक. धीरे-धीरे सब एक हो जाता है. बिस्किट की तरह मशीन से निकलती हैं किताबें और तुम उन्हें शब्द नहीं, रंग देखकर ख़रीदते हो.
मैंने भी कोई इंजेक्शन लिया है क्या? मैं क्यों कर रहा हूं ऐसी बातें? वो एक लड़का अपनी माँ को मार आया है उस चांद वाली शीशी के लिए. टॉमी सिंह 'टॉमी दा क्रू' वाली टी-शर्ट पहनकर भाग रहा है, अकेला और अनाथ.
वह कभी भी मर या खो सकता है पर खोता नहीं क्योंकि फिर एक खंडहर है, जिसमें वो अनाम लड़की रोती है पागलों की तरह और चूमती है उसे, कि और सब हुआ, बस यही नहीं हुआ उसके साथ.

हम क्या करें? हम क्या कर सकते हैं? उस लड़की के लिए और सुदीप शर्मा और अभिषेक चौबे के लिए?
कितना सच कहेंगे वे अगली बार? कितना सच कहूंगा मैं अगली बार? क्या हम चिल्ला पाएंगे उन चीज़ों पर, जो सोने नहीं देती हमें? क्या हम बर्ख़ास्त कर पाएंगे दुनिया को अपनी कहानियों में? या फिर हर बार शुरू से ही शुरू करनी होगी लड़ाई जिसमें सच के अपने-अपने प्रिंट होंगे सबके पास?
जैसे तुम्हारे पास हैं - इस वक़्त दो. एक तुमने डाउनलोड किया है और दूसरा वो, जो तय करेगा कि अगली बार सच तुम तक पहुंचेगा भी या नहीं.


Wednesday, 15 June 2016

ज़िन्दगी किश्तों में #1

ज़िन्दगी किश्तों में#1

..एक साल हार कर तुम घर छोड़कर चले गये। पर शहर बदल जाने से बेतरतीबगी नही जाती।
नया शहरकिराये का कमरा।
कई दिनों तक तुमने इस किराये के कमरे में घर निभाने की कोशिश की।
पर तुमने वही पाया जो हमेशा पाया। हार। और फिर तुमने एक दोस्त बनाया।
जारी..

[जिन्दगी किश्तों में]
चिराग़ शर्मा

Sunday, 12 June 2016

शरबती गुलाब

जिस समय लोग 'विज्ञान-वरदान या अभिशाप' पर निबंध रटा करते थे,
उस समय हमने एक बीज पाया,
बीज जो एक चौकोर डिब्बे से निकलकर हमारे ज़हन तक पहुँच बढ़ने लगा था, किसी ने बताया ये फ़िल्में हैं, एक ने कहा ये सिनेमा है।

वो आदमी जिसने उसे सिनेमा बताया था, कम बात करता और घंटो आग की तरफ देख उसे चूमता और कहता के दिल्ली के किसी स्टेशन पर प्लैटफॉर्म नंबर पौने दस हो सकता है जिसपर खड़ी ट्रेन किसी जादू सीखने के स्कूल की तरफ ले जाती है।

ये उसने एक किताब में पढ़ा था जिसके मुख्य पात्र के सिर पर बिजली के आकार का निशान था, हालाँकि उसके माथे पर ऐसा कोई कुछ नहीं था, ये बात सुना वो ज़ोर से हँसने लगा और आसमान की तरफ देख चिल्लाया 'शरबती गुलाब'

उस दिन के बाद वो कहीं दिखायी नहीं दिया, लोगों ने कहा वो बम्बई भाग गया, एक ने कहा उसे आग खा गयी।

                                    ---- प्रवेश

Friday, 10 June 2016

Adulthood

जी हाँ आज अंग्रेजी में , पर यकीन मानिये मज़ा उतना ही आएगा 

 Adulthood  -If i tell you frankly seems one ride that have got included in your ticket to the amusement park that this world is. The one ride you know you are going to take. You hear opinions about the ride from people who took it. U see them having fun while they’re on it. Sure its scary as fuck but you know that you gotta go in there and take that ride. The one ride that will change it all. The one ride that makes this ride worth its while.

Adulthood is when you shape your decisions.. you learn about feelings, about life. It’s time you find meanings. It when you start to make sense and you form perspective. Each day each hour that you pass as an adult is a matter of concern for you for people around you. Before you even begin to understand you’re under stress of a lot of things. You’re under pressure. This is how all of this works. You begin to understand the value of family. The joy of having a meal together and how rapidly change changes you... its interesting to understand the concepts of opinions and disagreements that come bundled with adulthood. You are not only expected to behave in a certain manner you are also entitled to justify your actions. Life offers a great deal of hardships to you in adulthood and everyone designs a way of dealing with them. Adulthood is what makes you understand that not everything is fun & games. In this stage of life people do get hurt by your words and action and you get hurt too. It is the time you start looking at things more deeply and more closely. Its the time your friends influence you and their success and failure affects you motivates you or deteriorates you.

Not every moment is this heavy you get to have fun a lot of fun.. with your wife with your kids with family but most of it is hard work perseverance consistent effort and endless thoughts and dilemmas and the work that goes into making choices that you make in order to satisfy people that matter to you. To maintain a sense of calmness and sanity in all the chaos. To impress people. To ascertain growth. To make ends meet. To enjoy. To plan. To survive. To frutify. To live.

That’s adulthood for you. It sucks but gotta hang in there.

                                                                               ---Vishwitter

Thursday, 9 June 2016

जगजीत सिंह-नाम ही काफ़ी है


हम लबों से कह ना पाए उनसे हाल -ऐ -दिल कभी

और वो समझे नहीं ये ख़ामोशी क्या चीज़ है |



गीतकार - निदा फाज़ली

गायक -   जगजीत सिंह

संगीतकार - जतिन -ललित



सुनिये , समझिये फिर सुनिये और बस सुनते जाइये क्यूंकि इस से बेहतर कुछ नहीं हो सकता






Wednesday, 8 June 2016

बढती यादें।

बढती यादें।

बचपन में बहुत बचपन की कुछ धुंधली बातें याद आती थी, एक बैट था।
फिर थोड़ा और बड़े होने पे याद आने लगा पुराना स्कूल और गली के तीन दोस्त।

अब याद आता है पहला आलिंगन तुम्हारा
और कुछ साल बाद याद आएगी आज पढी हुई कविता।

दोपहर में गर्मी के साथ यादें भी बढ़ती जा रही हैं।

                            ----- चिराग़ शर्मा 

Tuesday, 7 June 2016

गौरव सोलंकी के सामान का कुछ हिस्सा 


कभी-कभी मैं आपको लेकर
इन पटरियों पर लेटना चाहता हूं
और रेल के करीब आने के उन क्षणों में आपको बताना
कि कितना बेमानी था यह
कि आप मेरे चेहरे को कुचलके तान रहे थे सीना
और आप महान हुए
जबकि महान होना एक रेल से नहीं बचा सकता आपको

यह एक ऊँची दीवार है
और इसे तोड़ने जो मेरे कन्धों पर चढ़ा है
उसे आसमान नज़र आता है
पर नज़र नहीं आते मेरे कन्धे और मेरा पेट

आ से आम थे
पर मुझे एक आरी मिली रखी हुई
कि जो दुनिया थी मेरे यहाँ
उसमें हम सब अनचाहे थे

मैंने लोहे का बुरादा उठाया कुछ

और उसे रोटियों पे धरके खाया

-----gaurav solanki

ख़ामखाँ जीना खतरनाक है


क्या कभी देखे हैं तुमने,
गिरेबान में,जाले?
वही जो आ जाते हैं वापस ,
बिना बताए..
मैं रोज़ देखता हूँ उन्हे,
खुद पर लिपटे हुए..
कभी मैं भी था तुम्हारे जैसा,
खुश,उत्साहित,विश्वासी,
नया सा..
पर अब उन जैसा हूँ मैं,
जो होना किसी को पसंद नहीं..
और तुम्हे यकीन है,
के नहीं होगे तुम उस जैसे,मेरे जैसे..
कहा था मैने,
तुम विश्वासी हो,
और के मैं भी था..
सच कहूँ,

ख़ामखाँ जीना खतरनाक है..

            --- प्रवेश

Monday, 6 June 2016

सफेदी को जरा आने तो दो

सफेदी को जरा आने तो दो.......!

जवानी चार दिन की चांदनी है देखते हैं
जो एक दिन ढ़ल जाएगी तो देखते हैं
अभी तो बड़ा गुमान है नाजो-अदा पर
जब बूढ़ी हड्डियां चरमरायेंगी तो देखते हैं।
अभी बालों में काली है तो बदली लोग कहेंगे
सफेदी को जरा आने तो दो, फिर देखते हैं

अभी तो नर्म औं कमसीन, चमड़ों में रौनक है
जरा सिलवट तो आने दो फिर देखते हैं।
अभी तो हर तरफ छायी है सावन की बहार
जरा पतझड़ को आने दो, तो फिर देखते हैं
अभी गूंजती शहनाईयों के ख्वाबगाह में हो
जरा मातम तो आने दो फिर देखते हैं।
अभी तो जश्न में हो तुम्हे ख्याल कहां
कोई सवाल उठने दो, तो फिर देखते हैं
कर वजूद पे भरोसा पर कभी गरूर नहीं

जरा नीचे तो गिरने दो, तो फिर देखते हैं।


       -- साकेत रमन 
         असिस्टेंट प्रोफ़ेसर मॉस कम्युनिकेशन 
         DAVV

Sunday, 5 June 2016

प्रेम, प्रेमी। प्रेमिकाएं।

प्रेम, प्रेमी। प्रेमिकाएं।

-
प्रेमिकाएं एक बार में नहीं अपितु कई चरणों में छोड़ती हैं। मैं कई प्रेमिकाओं द्वारा अलग अलग स्तरों पर छोड़ा गया हूँ।
एक प्रेम संबंध मे मैं स्तब्ध छोड़ा गया। दूसरे में कई विकल्पों के साथ। और एक प्रेम संबंध ऐसा भी था जिसने मुझे कहीं का नहीं छोड़ा।
-
प्रेम का बहिष्कार करें। समझदार बनें, समझौते चुनें।
-
वो प्रेम संबंध जो खत्म हो गए, पूरे में जोड़ जाएं या अधूरे में?
-
प्रेमिकाओं द्वारा छोड़ा जाना और भुला दिया जाना दो अलग बातें हैं। मैं छोड़ा जाना चाहता हूँ, भुलाया जाना नहीं।


पहली प्रेमिका का धर्म है छोड़कर चले जाना। दूसरी का छोड़ा जाना।

                                            ---- चिराग़ शर्मा 


स्मोकिंग किल्स

बात सिर्फ सिग्रेट की नहीं है बात सिर्फ शराब की भी नहीं है , नशा कोई भी हो इंसान को लाचार और कमज़ोर ही बनाता है , बाकी आप समझदार हैं और मुल्क आज़ाद है जो चाहें सो करें |









नशे के लत मे तेरे संग तेरा घर भी जलता है

तेरे अपनों के सपनो का महल भी ढहता है
ये ऐसी आदत है जिसने बर्बाद ही सब को किया


अब वक़्त है सम्भलने का बदलने का तेरा 
      
       --- गाना है First India News की टीम का 
              लिखा गया है  मुक्ता भावसार व अन्य द्वारा (अन्य ब्लॉग मालिक के मित्र नहीं है )

Friday, 3 June 2016

मानव कौल की क़िताब से



मैंने हर बार रख दिया है
ख़ुद को पूरा-का-पूरा खोलकर
खुला-खुला-सा बिखरा हुआ
पड़ा रहता हूँ
कभी तुम्हारे घुटनों पर
कभी तुम्हारी पलकों पर
तो कभी ठीक तुम्हारे पीछे |

बिखरने के बाद का
सिमटा हुआ-सा मैं
‘था’ से लेकर ‘हूँ’ तक
पूरा-का-पूरा जी लेता हूँ ख़ुद को
फिर से
मेरे जाने के बाद
तुम शायद मुझे पढ़ लेती होगी
कभी अपने घुटनों पर
कभी अपनी पलकों पर
पर जो कभी ‘ठीक तम्हारे पीछे’ बिखरा पड़ा था मैं
वो ....?
वो शायद पड़ा होगा ‘अभी भी’ की आशा में
मैं ख़ुद को समेटे हुए
फिर से आता हूँ तुम्हारे पास
फिर
बार-बार
और हर बार छोड़ जाता हूँ
थोड़ा-सा ख़ुद को


ठीक तुम्हारे पीछे |

           --क़िताब है 'ठीक तुम्हारे पीछे'
               लेख़क - मानव कौल  

Thursday, 2 June 2016

कविता नंबर #1



हमने खयालो मे बना लिए उँचे महल,
साफ पानी के दरिये,
हंसती बिल्लियाँ और ज़िंदा पक्षी..
क्यूँकि हमें आज़ादी ना थी,
जूते पहन सोने की,
और ना ही पाला बदल,
चलने की दाईं तरफ..
पर हम रुके नहीं,
कम से कम खयालों में तो नहीं..
हमने भर दिए शहर के शहर,
गाँव के गाँव फिल्मी पोस्टरो,
और गानो की रील से,
बिना पूछे किसी से ये,
के क्या सही और क्या गलत..
सड़कों पर बिछा टेल्कम पाउडर,
गाड़ियाँ शमशानों में जमा कर,
रख दी गयीं एक के उपर एक,
क्यूँकि मरने पर मनाही थी,
जबकि फिसलना अनिवार्य..
स्कूल हालाँकि बचा लिए गये,
बंद किए जाने से,
लेकिन विषय सभी बदल दिए गये,
काग़ज़ रंगने के विषय को छोड़कर..
क्यूँकि सभी रंगोँ में,
कहानियाँ तो हज़ारों थी,
पर कोई प्रश्न यूँ ना था,
के इस रंग का व्यास क्या होगा,
और ना ही ऐसा कुछ,
के उस रंग के बाप का बाप कौन था..
पर उन्होने भांप लिया,
हमारे अंगूठे के निशान,
और स्याह पड़े हाथो पर,
बनने लगी लकीरो को..
जो दिखाई देती थी उस सड़क की तरह,
जिसपर दाईं तरफ दौड़ते लोग,
बादलो से पानी पीते थे..
फिर अंततः हमें भी ,
नींद की दवा में ज़हर घोल,
सुलाया जाने लगा,
ज़हर जिसमें ना नींद आती,
ना ही सपने.
--Pravesh 


Wednesday, 1 June 2016

यूँ ही की गई बातें #4

अगर हम साथ होते तो क्या रात कम कली होती !

 या दिन जादा सफ़ेद होता , सूरज की किरणों में तपिश जादा होती या चाँद में जादा शीतलता !

 क्या बारिशें ज्यादा गीलीं होती या हवाओं के वेग् में फ़र्क होता

        नहीं ऐसा कुछ नहीं होता , ऐसा हो सकता है केवल कविताओं में , हम भी शायद कविताओं की तरहा ही हैं , दो अलग अलग कविताएँ जिनमें कोई समानता नहीं है , सिवाए उस कवी के भाव के जिसको अपनी दोनों कविताएँ पूरी लगती हैं बिना उन्हें एक दुसरे से जोड़े हुए

तो क्या हम कभी मिलेंगे !
शायद उसी कवी की किसी कविता में हम फिर से एक हो जाएँ , तब हम एक नई कवता बन जायेंगे ,
जैसे एक ग़ज़ल जो छुपाए हुए है कई कविताएँ अपने भीतर,


ये कवी बहुत क्रन्तिकारी होते हैं ये कुछ भी कर सकते हैं।




                                                  ---------     ब्लॉग मालिक