पचास रुपए का चांद
लेखक - गौरव सोलंकी
18 जून 2016
एक खंडहर है 'उड़ता पंजाब' में. जहां सरताज का भाई इंजेक्शन लगाता
है ख़ुद को ड्रग्स के. जहां टॉमी को मिलते हैं उसके साथी वे दो लड़के - गुरू
गोविंद सिंह के बच्चे - जो दीवार पर हाथ टेककर उठ भर पाते वहां से तो कोई गाना गा
सकते थे सरसों के उन खेतों में, जहाँ ग्रीन रिवॉल्यूशन आया
था कभी. पर वह नहीं है कहीं.
पचास रुपए में चाँद
ख़रीदा है उन्होंने और किसी ने मन भर मिट्टी डाल दी है उन पाँचों नदियों में,
जिनका नाम सुनकर नसें काँप सी जाती हैं. कि जैसे कोई महबूबा हो
पुरानी ये पंजाब, जिसे बदनाम होने से बचाना चाहते हैं इतने
सारे लोग.
हम डरे हुए लोग हैं.
हमारे धर्म मांस के टुकड़ों से थरथरा जाया करते हैं. हम लड़कियों की उनके
बलात्कारियों से शादी करवाकर सुरक्षित महसूस करते हैं.
हम कवर खरीदते रहते हैं
हर चीज़ का, सामान चेन से बाँधते रहते हैं. हम छिपा
देते हैं अपने घर के बीमारों को पिछले कमरे में. हम वॉल्यूम बढ़ा देते हैं टीवी का,
जब कोई चिल्लाता है. हम खुले में चूम नहीं सकते, न रो सकते हैं.
इसीलिए हम अपने भीतर
इतना चूम और रो रहे होते हैं. इसीलिए हमें बार-बार तसल्ली चाहिए कि सब ठीक है. दिन
में तीन बार, दवाई की तरह. और जब शाहरूख बाहें फैलाता
है या वरुण धवन नाचता है चिट्टी कलाइयों वाली जैकलीन के साथ, तो सांस में सांस आती है हमारी.
और फिर अक्सर कोई
कलाकार आता है - कोई लेखक या फ़िल्ममेकर या घड़ीसाज़ - जो कहता है कि कुछ गड़बड़
है कहीं,
कि या तो हम बीमार हैं या करप्ट हैं. और तब इकट्ठे हो जाते हैं सब -
इसके सैल बदल दो, ये पागल हो गया है.
और फिर ऐसे नेता चुनते
हैं वे,
जो पुचकारते हैं उन्हें और सैल बदलते हैं उन सब पागलों के. कुछ को
फ़ॉर्मेट करना पड़ता है. एक टेप ऑन कर दिया जाता है हर घर में जो याद दिलाता रहता
है कि सब कुछ अच्छा है और, और अच्छा हो रहा है.
इस बीच वे किसी लेखक को
घड़ीसाज़ कहने लगते हैं और घड़ीसाज़ को लेखक. धीरे-धीरे सब एक हो जाता है. बिस्किट
की तरह मशीन से निकलती हैं किताबें और तुम उन्हें शब्द नहीं,
रंग देखकर ख़रीदते हो.
मैंने भी कोई इंजेक्शन
लिया है क्या? मैं क्यों कर रहा हूं ऐसी बातें?
वो एक लड़का अपनी माँ को मार आया है उस चांद वाली शीशी के लिए. टॉमी
सिंह 'टॉमी दा क्रू' वाली टी-शर्ट
पहनकर भाग रहा है, अकेला और अनाथ.
वह कभी भी मर या खो
सकता है पर खोता नहीं क्योंकि फिर एक खंडहर है, जिसमें वो अनाम लड़की
रोती है पागलों की तरह और चूमती है उसे, कि और सब हुआ,
बस यही नहीं हुआ उसके साथ.
हम क्या करें?
हम क्या कर सकते हैं? उस लड़की के लिए और
सुदीप शर्मा और अभिषेक चौबे के लिए?
कितना सच कहेंगे वे
अगली बार?
कितना सच कहूंगा मैं अगली बार? क्या हम चिल्ला
पाएंगे उन चीज़ों पर, जो सोने नहीं देती हमें? क्या हम बर्ख़ास्त कर पाएंगे दुनिया को अपनी कहानियों में? या फिर हर बार शुरू से ही शुरू करनी होगी लड़ाई जिसमें सच के अपने-अपने
प्रिंट होंगे सबके पास?
जैसे तुम्हारे पास हैं
- इस वक़्त दो. एक तुमने डाउनलोड किया है और दूसरा वो,
जो तय करेगा कि अगली बार सच तुम तक पहुंचेगा भी या नहीं.