Sunday 3 July 2016

ख़त्म होता बचपन

किसी एक शाम ..
घर से दूर किसी शहर में काम की व्यस्तता में जुझते हुए, जब अपने दूर होते नज़र आते हैं। तभी किसी एक शाम फ़ोन की घंटी सुनाई पड़ती है, वो फ़ोन है आप के घर से...

फ़ोन के उस तरफ से दबी हुई आवाज़ आती है, "घर आना भूल गए या आना नहीं चाहते," फ़ोन पर अपनी माँ से बात की, मुझसे कहा की, यह आवाज़ थी उस पिता की जो प्यार जताना नहीं जानते लेकिन ये चंद अलफ़ाज़ उनकी तकलीफ़, उनके बच्चे से मिलने की तड़प बयां कर गए।
क्या प्यार जताने के लिए शब्दों की ज़रूरत होती है, ये छोटी-छोटी शिकायतों में एक पिता का निस्वार्थ प्रेम नहीं छलकता, या हम समझना नहीं चाहते...
ठीक उसी दिन कुछ पहर बाद..
बारिश और शाम की भीड़-भाड़ के बीच, शहर के किसी सिग्नल पर गाड़ियों के हॉर्न की आवाज़ और लोगों के शोरगुल से आती एक आवाज़.. "तू मेरा बच्चा है इसलिए समझाता हूँ , डांटता हूँ.."

इस समझाइश को न समझने वाला और भीड़ में असहज़ महसूस करने वाला वह नादान बच्चा, झुंझला कर बोल पड़ा, क्या पापा यहाँ भी..
भीड़ में ख़ुद के सवालों से लड़ते हुए यह वाक्या हमें सच से रूबरू करा गया।
हम यह तो समझते है, लेकिन उम्र के उस पड़ाव पर आ कर, जब समझाइश, शिकायतों में तब्दील हो जाती है और हम अपने बचपन के सुनहरे दौर से गुज़र चुके होते हैं।


                                       --- प्रिया व्यास



No comments:

Post a Comment