Wednesday 26 October 2016

मुझे इश्क़ है उस शहर से - मुक्ता

मुझे इश्क़ है उस शहर से
वहाँ की सुबह और दोपहर से
तेरी नजदीकियों के अहसास से
तुझसे मिलने की आस से
चाँदनी उस रात से
खिलखिलाती बरसात से
उस पहली मुलाकात से
सर्दियों की धूप से
गर्मियों की छाँव से
संग बढ़ते क़दमों से
तुमसे मिले ग़मों से
तुम्हारी नर्म छुअन से
बिछड़ने की तड़पन से  
तुम्हारी रूह से , तुम्हारे मन से

मुझे इश्क़ है तुम्हारे हर रंग से |

                      -------- मुक्ता भावसार 

Friday 21 October 2016

कितनी दूर तक चलूँ कि काबिल बन जाऊँ,
छुप जाऊँरूक जाऊँ या बदल जाऊँ।

तर्क--ताल्लुकात को यूं तो हो गया है वक्त,
कुछ दिन और करूं शर्म या अब मचल जाऊँ।

इश्क़ से उबरा तो  सुनो कर लिया था हिसाब,
अब बस उतना ही गिरता हूं कि संभल जाऊँ।


                                            -------चिराग़ शर्मा 

Wednesday 19 October 2016

मैं रहूँगी ताउम्र बस तुम्हारी

मुझे आज चाँद का इंतजार नहीं
मगर ऐसा नहीं कि तुमसे प्यार नहीं
मैं आज भी तुमसे बेइम्तहाँ प्यार करती हूँ
तुम्ही से जी उठती हूँ
और तुम्ही पर मर मिटती हूँ
नहीं मिलती है तेरी मुझको एक झलक
मैं तेरी तस्वीर को देख कर संवरती हूँ
ना किसी तोहफे की चाहत है
ना देरी से आने की शिकायत
बहुत दूरियाँ गयी है
अब हम दोनों के दरमियाँ
मैं यहां और तुम वहां
फिर मिलेंगे चांदनी रात में
हमसे चाहने वाले कहाँ
रहोगे अधूरी हसरत तुम मेरी
चाहे मिल जाएं मुझे सारा जहाँ

मैं रहूँगी ताउम्र बस तुम्हारी

                      -------मुक्ता भावसार

Tuesday 18 October 2016

क्या इतिहास दोहराया जाएगा ? - मुक्ता

क्या फिर कभी इतिहास दोहराया जाएगा ?
क्या फिर उसी तरह ये चांद पूजा जाएगा ?
इसका देरी से निकलना फिर तुम्हें   क्या तड्पाएगा
फिर कभी क्या तुमको हमसे वो प्यार हो पाएगा  ?
क्या तुम निहारोगे कभी फिर किसी दर्पण की तरह
क्या हम मिल पाएंगे कभी फिर उसी समर्पण की तरह ?
क्या हाथ थामे चलोगे तुम, सुनोगे मेरी शिकायतें
क्या मेरी ज़िद्द पर अपनी मर्जी फिर चलाओगे कभी ?
क्या हम ढूंढेंगे कभी पसंदीदा पकवान की दुकान
क्या फिर जिंदगी में रंग भरेगा यादों का कोई मकान ?
क्या मैं  लाल रंग में फिर उतनी सुन्दर दिखूंगी  कभी

क्या फिर इस चांद के संग तेरा दीदार करूंगी कभी ?

                                 ---------- मुक्ता भावसार 

Monday 17 October 2016

मैं बदल नहीं पाती - मुक्ता

मैं सब कुछ बदल देना चाहती हूँ
समाज की बुराइयों को
युवाओं की भटकती सोच को
महिलाओं के साथ हो रही असमानता को
अपने हक़ के लिए लड़ते ग़रीबों की स्थिति को
लेकिन फिर सोचती हूँ क्या यह संभव है ?
जवाब भी मिलता है हां संभव है
बस एक बार तुम्हें खुद को बदलना होगा
वक़्त देना होगा हर बदलाव के लिए
बलिदान देना होगा अपनी आराम पसंद सोच को
फिर में थक हार कर रात घर वापिस आती हूँ
और सो जाती हूँ अपनी इसी सोच के साथ
और उठ नहीं पाती उसी बदलाव के विचार के साथ
में कुछ भी बदल नहीं पाती

क्योंकि में खुद को नहीं बदलती हूँ 

                             ------- मुक्ता भावसार