क्या फिर कभी
इतिहास दोहराया जाएगा
?
क्या फिर उसी
तरह ये चांद
पूजा जाएगा
?
इसका देरी से
निकलना फिर तुम्हें क्या तड्पाएगा
फिर कभी क्या
तुमको हमसे वो
प्यार हो पाएगा ?
क्या तुम निहारोगे कभी
फिर किसी दर्पण की
तरह
क्या हम मिल
पाएंगे कभी फिर
उसी समर्पण की तरह ?
क्या हाथ थामे
चलोगे तुम, सुनोगे मेरी शिकायतें
क्या मेरी ज़िद्द पर
अपनी मर्जी फिर चलाओगे कभी ?
क्या हम ढूंढेंगे कभी
पसंदीदा पकवान की दुकान
क्या फिर जिंदगी में
रंग भरेगा यादों का कोई
मकान
?
क्या मैं लाल रंग में
फिर उतनी सुन्दर दिखूंगी कभी
क्या फिर इस
चांद के संग
तेरा दीदार करूंगी कभी
?
---------- मुक्ता भावसार
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