कितनी दूर तक चलूँ कि काबिल बन जाऊँ,
छुप जाऊँ, रूक जाऊँ या बदल जाऊँ।
तर्क-ए-ताल्लुकात को यूं तो हो गया है वक्त,
कुछ दिन और करूं शर्म या अब मचल जाऊँ।
इश्क़ से उबरा तो सुनो कर लिया था हिसाब,
अब बस उतना ही गिरता हूं कि संभल जाऊँ।
-------चिराग़ शर्मा
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