Friday, 6 January 2017

ख्वाहिशों का बोझ - मुक्ता

ना जाने कितना वक़्त बीत गया
अपने आंगन की धूप देखे ,
बहुत हो गया आज काम
तुम थोड़ा तो कर लो आराम
कोई नहीं जो यह कह दे    ।
माँ थाली में प्यार परोसे ,
वो दिन अब नहीं हिस्से में मेरे  |
बेगाने एक घर की चारदीवारी ,
बन गयी है ज़िंदगानी ।
तन्हा रातें,तन्हा संवेरे
घर की याद हर सांझ घेरे
कोई नहीं जो राह निहारे
प्यार से मुझको दुलारे ।
खाली दीवारे चिड़ाएं
दर्द की बात किस से कहें ?
कौन यहाँ शिकायत सुने ?
ख्वाहिशों का बोझ हाय, मासूम दिल कैसे सहे ?
ख्वाहिशों का बोझ हाय, मासूम दिल कैसे सहे ?

                          -----मुक्ता भावसार

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